Saturday, July 17, 2010

1) वरदान

ईश्वर के दरबार में एक बार धरती से लाए गए व्यक्ति से जब जवाब तलब किया गया तो, उसके उत्तर सुनकर ईश्वर स्वयं वरदान बनकर उस पर न्यौछावर होने को कुछ इस तरह तैयार हो गया -
ईश्वर ने पूछा - धरती पर तुमने क्या किया
इंसान - कर्म
ईश्वर - क्या सिखाया
इंसान - धर्म
ईश्वर - क्या मिटाया
इंसान - जुर्म
ईश्वर - क्या बटोरा
इंसान - नेकी
ईश्वर - क्या बाँटा
इंसान - दूसरों का दुख
ईश्वर - क्या तोड़ा
इंसान - गुरूर
ईश्वर - क्या जोड़ा
इंसान - दिल
ईश्वर - क्या कायम किया
इंसान - सद्भाव
ईश्वर - क्या खोया
इंसान - दुर्भाव
ईश्वर - क्या पाया
इंसान - सुकून
ईश्वर - तुम्हारी जमा पूँजी
इंसान - इंसानियत
(ईश्वर को लगा यह ज़रूर कोई संत या फक्क़ड साधु होगा, लोगों को प्रवचन देता होगा)
ईश्वर - जानते हो ऐसे भारी - भारी काम कितने कठिन है ?
इंसान - जी आसान है !
ईश्वर - ऐसी कौन सी जादू की छड़ी रखते हो तुम ?
इंसान - जी छोटी सी कलम !
ईश्वर - छोटी सी कलम .....?
ईश्वर - तुम हो कौन...... ?
इंसान - लेखक !
ईश्वर - लेखक ?
इंसान - जी
ईश्वर - लेखक , छोटी सी कलम .....?
इंसान - जी, सच ! जी, उसी में है इतना दम !
ईश्वर - उसे कैसे चलाते हो
इंसान - स्याही में डुबोकर काग़ज़ पर चलाता हूँ ।
ईश्वर - फिर उससे क्या होता है ?
इंसान - बड़े- बड़े ह्रदय परिवर्तन, जीवन परिवर्तन, दिशा परिवर्तन यानी ‘क्रान्ति’
ईश्वर - क्या कहते हो, क्रान्ति तो तलवार और कटार की धार पर होती हैं,
इंसान - जी, पर क़लम इन सब से पैनी होती है।
सोए को जगाती है, निराश को उठाती है,
उदास को हँसाती है, दमित को दम देती है
नासमझ को समझाती है, क्रूर को कोमल बना
प्यार का पाठ पढ़ाती है, जीवन की परतें खोल
गहरे अर्थों का परिचय कराती है,
क्या कहूँ, क्या - क्या न कहूँ
यह अनोखी सबसे है.....................!
वेद, क़ुरान, बाइबिल, सब इसी के दम से है !
सच कहता हूँ मेरे भगवन, मेरा लेखन भी इसी के बल पे है
इसी से क, ख, ग ध्वनियों को, शब्दों में ढालता हूँ
अर्थों से भरता हूँ और वे ज़रूरी काम करके
समाज और जीवन के प्रति, अपना दायित्व निबाहता हूँ
जिन्हें सुनकर आप हैरान हैं !!
‘सृष्टा’ ने ऐसे 'दृष्टा' को वरदान देते हुए कहा
ठीक है आज के बाद, जब भी मुझे धरती पर
कुछ परिवर्तन लाना होगा, तो मैं तुम्हारी क़लम में उतर आऊँगा,
तुम्हारी क़लम को दिव्य और धरती को स्वर्ग बनाऊँगा !
इंसान बोला - “और मैं धन्य हो जाऊँगा” !!



2) कश्मकश

खिंच गई चेहरे पे लकीरें आके टूटे दिल से
छुपा रखा था जो दर्द परतों में
रह - रह के लगा रिसने फिर से !
चाहा था जितना दूर रहना
जुड़ती गई उतना ही गहरे उन से
उनकी ओर दौड़ता रहा मन
जाती जितना, पीछे मैं तेज़ी से !

खिंच गई चेहरे पे लकीरें आके टूटे दिल से
छुपा रखा था जो दर्द परतों में
रह - रह के लगा रिसने फिर से !

बीते समय की दीवारों में कैद
रिश्ते मुस्कुराते हैं - हौले से
आलों, झरोखों में बसी यादें,
उदासी में खिलखिलाती हैं - शोखी से !

खिंच गई चेहरे पे लकीरें आके टूटे दिल से
छुपा रखा था जो दर्द परतों में
रह - रह के लगा रिसने फिर से !

समय के साथ कदम से कदम मिला के
चलती रही यूँ तो हिम्मत से
पर, बीतते समय के साथ
अब थके पाँव देखते हैं मुझे हैरत से !

खिंच गई चेहरे पे लकीरें आके टूटे दिल से
छुपा रखा था जो दर्द परतों में
रह - रह के लगा रिसने फिर से !
न पीछे लौटना मुमकिन
न आगे बढ़ना आसान
एक ठहराव पे ठिठक गई है
ज़िन्दगी जैसे एक मुद्दत से !

खिंच गई चेहरे पे लकीरें आके टूटे दिल से
छुपा रखा था जो दर्द परतों में
रह - रह के लगा रिसने फिर से !


3) ऐसा होता है अक्सर !

एक दिन समाज के दर्शन करने घर से निकली
तो देखा समाज दौड़ रहा था........
धुएँ का ग़ुबार था, शोर का उबाल था,
मैंने पूछा - क्या पाने के लिए दौड़ रहे हो ?
लक्ष्यविहीन समाज का जवाब क्या होता !
बोला - पता नहीं !
पता नहीं तो ये दौड़ क्यों, आपाधापी क्यों ?
सबको दौड़ते देख, मैं भी दौड़ में शामिल हो गया,
यह कहते-कहते, जैसे वह एकाएक दौड़ के जुनून से बाहर आया,
बोला - पर मैं क्यों रहा हूँ दौड़, पैर सिर पे रख कर ?
मैंने कभी सोचा क्यों नहीं इस पर !
मैंने कहा - आज के ज़माने में ऐसा होता है अक्सर !


आगे बढ़ी तो चीख पुकार का ज़ोर था,
समाज हिंसा से सराबोर था,
कुछ लोग हिंसा के चक्रव्यूह में हो रहे थे ढेर,
वार कर रहे थे लोग, उन्हें चारों ओर से घेर,
मैंने पूछा - ये मार पीट क्यों ?
उद्देश्यविहीन समाज का जवाब क्या होता !
बोला - पता नहीं !
पता नहीं तो ये हिंसा क्यों ?
सबको वार करते देख, मैं भी हिंसा में शामिल हो गया,
यह कहते-कहते जैसे वह एकाएक हिंसा के जुनून से बाहर आया
बोला - पर मैं क्यों कर रहा हूँ वार उस पर ?
मैंने कभी सोचा क्यों नहीं इस पर !
मैंने कहा - आज के ज़माने में ऐसा होता है अक्सर !

आगे बढ़ी तो देखा समाज हँसते-हँसते लोट पोट था,
कोई मुँह दबाकर, तो कोई मुँह फाड़कर,
एक निरीह पागल की हरकतों को देखकर
पेट पकड़ के हँसने को जैसे मजबूर था,
हँसी के चक्रवात में चक्रम में बने समाज से,
मैंने पूछा – किस पर हँस रहे हो और क्यों ?
बुध्दिविहीन समाज का क्या जवाब होता !
बोला - पता नहीं !
सबको हँसते देख मैं भी हँसी में शामिल हो गया,
यह कहते-कहते जैसे एकाएक वह हँसी के जुनून से बाहर आया,
बोला - पर मैं क्यों हँस रहा हूँ उस पर ?
मैंने कभी सोचा क्यों नहीं इस पर !
मैंने कहा - आज के ज़माने में ऐसा होता है अक्सर !

आगे बढ़ी तो देखा गली के नुक्क्ड़ पर,
फटेहाल घर के नीचे खड़ा समाज,
एक दीन हीन औरत को लांछित कर रहा था,
पुण्यात्मा समाज से मैंने पूछा - उसे क्यों धिक्कार रहे हो ?
विचारहीन समाज का क्या जवाब होता,
बोला - पता नहीं !
पता नहीं तो तुम्हें उसे धिक्कारने का कोई अधिकार नहीं,
सबको धिक्कारते देख, मैं भी ‘धिक्कार’ में शामिल हो गया,
यह कहते-कहते जैसे एकाएक वह धिक्कारने के जुनून से बाहर आया,
बोला - पर मैं क्यों कर रहा हूँ शब्दों के वार उस पर ?
मैंने कभी सोचा क्यों नहीं इस पर !
मैंने कहा - आज के ज़माने में ऐसा होता है अक्सर !

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